करनाल, 17 नवंबर। देश और समाज में व्याप्त अधिकतर बुराइयों के मूल में भोगवादी सोच और अशुद्ध आचरण है। सोच विकृत होगी तो आचरण भी निकृष्ट ही होगा। संस्कृत पढ़ने से मनुष्य में संस्कार के बीज पनपते हैं। इसलिए, अपने आचरण को शुद्ध करने के लिए संस्कृत पढ़ना अत्यंत आवश्यक है। बच्चे यदि संस्कृत का एक भी श्लोक ठीक से समझ जाएं तो कई बुराइयों से बच सकते हैं। यदि शास्त्रों में कही गई बातों को पाठ्यक्रमों में शामिल कर स्कूल स्तर से ही बच्चों को पढ़ाया जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वे सन्मार्ग पर जाएंगे। आत्मवत सर्वभूतेषु की अनुभूति होने पर एक नूतन समाज का निर्माण होगा। यह मानना है डीएवी कॉलेज बेहवा में संस्कृत के प्राचार्य डॉ. कामदेव झा का।
डॉ. झा रेडियो ग्रामोदय पर आयोजित लाइव कार्यक्रम में संस्कृत की महत्ता और इसे स्कूल कॉलेजों में अनिवार्य विषय के तौर पर पढ़ाए जाने के सवाल पर अपनी राय व्यक्त कर रहे थे। इस चर्चा के सूत्रधार राजेश नैन ने उनसे पूछा था कि शिक्षण संस्थानों में संस्कृत की पढ़ाई अनिवार्य कर दिए जाने का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा। डॉ. कामदेव झा ने बताया कि शास्त्रों में उल्लिखित संस्कृत के श्लोकों में चारित्रिक शुद्धता पर जोर दिया गया है। उन्होंने कठोपनिषद के एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा कि 5 वर्ष के बालक नचिकेता को जब यमराज ने तमाम सांसारिक प्रलोभन दिए, तब भी नचिकेता जीवन मृत्यु और ब्रह्म का ज्ञान पाने के अपने निश्चय से नहीं डिगा। उसने यमराज के सारे प्रलोभन नकार दिए। यह आत्मज्ञान संस्कृत और शास्त्र के अध्ययन से ही संभव है। यजुर्वेद में पूरे विश्व को एक परिवार माना गया है और मानव मात्र के कल्याण की बात कही गई है। डॉ. कामदेव झा ने कहा कि चारित्रिक शुचिता के लिए रामायण एवं महाभारत का अध्ययन जरूरी है।
राजेश नैन ने संस्कृत के एक अन्य विद्वान व प्राध्यापक डॉ. कृष्ण चंद्र शास्त्री से पूछा कि आज के संदर्भ में प्राचीन शिक्षा पद्धति किस प्रकार लागू की जा सकती है और संस्कृत का उसमें क्या योगदान हो सकता है ताकि यह शिक्षा रोजगार का जरिया भी बने और भारतीय संस्कार भी ज्यों के त्यों बने रहें। इस पर डॉ. शास्त्री ने कहा कि व्यवसाय परक शिक्षा प्राचीन शिक्षा पद्धति में भी कम नहीं थी। फसलों, धातु, मशीनरी और विविध कलाओं से लेकर स्वास्थ्य व चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा भी प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में दी जाती थी। आज के दौर में एलोपैथी के जनक अंत में लिख चुके हैं कि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति अधूरी है और इसके दुष्परिणाम दूरगामी हैं। वह अपनी पुत्री को एलोपैथिक उपचार से नहीं बचा पाए थे। आयुर्वेद से श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति कोई नहीं है। शिक्षा में संस्कृत को शामिल किया जाएगा, तभी यह ज्ञान लौट सकता है। डॉ. शास्त्री ने बताया कि भारत की प्राचीन वास्तुकला इतनी उन्नत थी कि उस काल में बिना सरिया के बनाए गए बड़े बड़े बहुमंजिला मंदिर एवं भवन आज भी ज्यों के त्यों खड़े हैं। यह आज के इंजीनियरों के लिए भी कौतूहल का विषय है। उन्होंने बताया कि आज कई शिक्षण संस्थानों में ऐसे पाठ्यक्रम शुरू किए गए हैं जिनमें मॉडर्न आर्किटेक्चर के साथ-साथ वास्तुशास्त्र को भी शामिल किया गया है।
डॉ. कृष्ण चंद्र शास्त्री ने कहा कि हमारे शास्त्रों में पुनर्जन्म का उल्लेख है, लेकिन आधुनिक विज्ञान इसे नहीं मानता। आयुर्वेद में चरक ने कहा है कि 100 प्रकार की मौतों में से 99 प्रकार की मौतों को टाला जा सकता है। अपमृत्यु को नहीं टाला जा सकता।
डॉ. झा ने कहा कि संस्कृत में सभी भाषाओं का समावेश है। जिसका संस्कृत अच्छा होगा उसकी अन्य भाषाओं पर भी पकड़ अच्छी होगी। आज के काल को भी संस्कृत का स्वर्ण काल कहा जा सकता है।