चंडीगढ़, 30 अक्टूबर। इतिहास की परतें किसी देश के भविष्य की संजीवनी साबित होती हैं और न खोली जाएं तो ताबूत में कील जैसी बन जाती हैंI आज़ादी का अमृत महोत्सव – स्वतंत्रता के सेनानी एक ऐसी ही संजीवनी है जिसके माध्यम से देश की वर्तमान पीढ़ी को स्वातंत्र्य वीरों से रूबरू करवाया जा रहा हैI इसी कड़ी में एक वीरांगना हैं उमाबाई कुंदापुर।
केंद्रीय विद्यालय संगठन के शिक्षक एवं परामर्शदाता राजेश वशिष्ठ केविएसगुरु ने जानकारी देते हुए बताया कि वर्ष 1892 में कर्नाटक में जन्मी उमाबाई कुंदापुर महिला शिक्षा आंदोलन के माध्यम से महिला उत्थान में सहयोग देते हुए देश को स्वतंत्रता दिलाने वाली महान सेनानी थी। उनका घर का नाम भवानी था तथा विवाह पश्चात वह उमाबाई कुंदापुर के नाम से जानी गई। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देश का सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन स्थापित पर घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली नारीशक्ति को स्वतंत्रता संग्राम की भवानी बना दिया।
प्रगतिशील विचारधारा वाले परिवार में मात्र 9 वर्ष की आयु में संजीवराव कुंदापुर से ब्याही गई उमाबाई कुंदापुर ने 1923 में अपने पति को खो दिया लेकिन कर्नाटक प्रेस और तिलक कन्याशाला के माध्यम से महिला शिक्षा में वह सक्रिय रहीं।
उनके इस कार्य को भगिनी मंडल ने आगे बढ़ाया I उमाबाई कुंदापुर की प्रेरणा से कन्याओं ने पढ़ाई के साथ साथ स्वदेशी को भी अपनाया जिसकी वजह से महिलाओं ने खादी का प्रयोग शुरू किया। उमाबाई साथी महिलाओं के साथ घर घर जाकर लोगों को खादी अपनाने की प्रेरणा देने लगी I फलस्वरूप उन्हें आमदनी होने लगी। सेवादल का नेतृत्व करते हुए उन्होंने महिलाओं विशेषकर कन्याओं तथा विधवाओं को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया I
1924 में कांग्रेस के बेलगाम अधिवेशन में गाँधी जी ने उमाबाई के योगदान को अनुभव किया क्योंकि उमाबाई कुंदापुर के प्रयासों से ही पहली बार बड़ी संख्या में महिलाएं अधिवेशन का हिस्सा बनी थीं। उमाबाई कुंदापुर को गाँधी जी ने कस्तूरबा ट्रस्ट की कर्नाटक शाखा का मुखिया बना दिया।
1932 में नमक आंदोलन में उमाबाई कुंदापुर ने फ़ौलाद हौंसला दिखाते हुए बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। यरवदा जेल की यातनाओं को सहने के साथ साथ उमाबाई कुंदापुर को भगिनी मंडल , कर्नाटक प्रेस और तिलक कन्याशाला पर भी प्रतिबंध सहना पड़ा। परंतु उमाबाई कुंदापुर ने हार नहीं मानी और निराश्रित सेनानियों को आश्रय देने के साथ वह समाजसेवा और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देती रही।
देश के लिए प्राण न्यौछावर करने वाली इस सदात्मा ने स्वतंत्रता पश्चात स्वाधीनता सेनानियों को मिलने वाली पेंशन को भी विनयपूर्वक इंकार कर दिया और शतायु हो वर्ष 1992 में हुबली के अपने घर में आज़ाद भारत में अंतिम श्वास ली। उमाबाई कुंदापुर की हर साँस आज स्वतंत्र भारत की प्राणवायु है।