चंडीगढ़, 29 अक्टूबर। संसार का हर इन्सान प्रसन्नता चाहता है और प्रसन्नता पाने के लिए वह निरंतर प्रयासरत रहता है। हम सभी जन्म तो एक बच्चे के रूप में ही लेते हैं, लेकिन आयु के बढ़ने के साथ-साथ किसी न किसी तरह अपने आनन्द की स्थिती को बनाए रखने के लिए लगातार संघर्ष करते हैं। यह कहना है सत्गुरु माता सुदीक्षा महाराज का।
सत्गुरु माता सुदीक्षा महाराज जी कहती है कि जीवन में खुशियां प्राप्त करने के लिए हम हर संभव प्रयास करते हैं; अच्छा खाना खाने से लेकर महंगे कपड़े पहनने तक, शिक्षा से लेकर सम्पूर्ण विश्व की यात्रा करने तक, अपने सपनों का घर खरीदने से लेकर आरामदायक कार खरीदने तक, इसके साथ ही और भी बहुत कुछ हम अपनी ख़ुशी कायम रखने के लिए करते रहते हैं। ख़ुशी फिर भी कभी हाथ न आने वाली एक महत्वाकांक्षा ही बनी रहती है। अलग-अलग लोगों के लिए इच्छाओं और उनकी पूर्ति के आधार पर ख़ुशी का एक अलग अर्थ होता है। इच्छाओं के फल के रूप में मिलने वाला सुख अस्थाई और क्षणभंगुर होता है। एक इच्छा दूसरी इच्छा की ओर ले जाती है और दूसरी तीसरी की ओर, इसी तरह आशाओं-आकांक्षाओं की एक अंतहीन शृंखला बन जाती है, फिर भी खुशी अभी भी हमारे लिए दूर का सपना ही रहती है। इसका कारण यह है कि हम सच्चे सुख के सार और उसकी गहराई को नहीं समझते हैं।
सच्चा सुख मन की वह आनंदमय अवस्था है जिसमें स्थिरता और सहजता मौजूद है। यह एक ऐसे स्वप्न लोक की अवस्था है जहां कोई आसक्ति, शत्रुता, भ्रम या भय नहीं है; एक ऐसी अवस्था जहां उम्मीदों के स्थान पर कृतज्ञता है, शत्रुता के स्थान पर प्यार है, भय और भ्रम के स्थान पर आध्यात्मिक जागृति है। हालांकि यह एक कार्य प्रतीत हो सकता है, लेकिन वास्तव में यह एक बहुत ही सरल प्रक्रिया है जो एक ऐसे परम अस्तित्व से जुड़कर शुरू होती है, जो सर्वथा स्थिर है। हमें नज़र आने वाला यह भौतिक संसार नित्य परिवर्तनशील है और इस परिवर्तनशील जगत में अगर कुछ अपरिवर्तनशील और अविनाशी है तो एकमात्र यह सर्वव्यापी, शाश्वत, आकार रहित निरंकार परमात्मा ही है। जब तक हम अपने शरीर, मन और सम्पदाओं से अलग अपनी पहचान नहीं बनाकर रखते हैं तब तक हम भय, भ्रम, मोह और अहंकार के जाल में फंसे ही रहेंगे। हमें सत्य-प्रभु को जानकर अपने सत्य आत्म स्वरूप को महसूस करने की आवश्यकता है; यह सृजनकर्ता और सृष्टि के बीच व्यापक अंतर को खोजने और पाने की एक प्रक्रिया है, सृष्टि में सृजनकर्ता और सृजनकर्ता में सृष्टि के दर्शन करने का प्रयास है। परमात्मा का यह ज्ञान सन्तों-महात्माओं द्वारा युगों-युगों से दिया जाता रहा है। उन्होंने स्वयं निराकार प्रभु की उपस्थिति का एहसास किया और इससे जो अनन्त सुख और आनंद प्राप्त किया उसे ही आगे भक्तों को प्रदान किया। प्रभु का यह एहसास और इसका साक्षात्कार आज भी प्राप्त किया जा सकता है। एक बार जब हम जीवन के इस दिव्य और सर्वोच्च परमसत्ता निरंकार का एहसास कर लेते हैं कि हम आत्मा रूप में इस परम पावन सत्ता का एक अनिवार्य अंग हैं, फिर हम इस सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान निराकार का आधार लेकर शाश्वत सुख के मार्ग पर आगे बढ़ना शुरू कर देते हैं।
आइए, इस अद्भुत यात्रा के बारे में बात करते हैं। पहली बात तो यही कि हम अपने जीवन में चीजों को बहुत हल्के में लेते हैं और अधिक से अधिक चीजें प्राप्त करने की उम्मीद करते हैं, यही हमारे दुख का कारण बन जाता है। उदाहरण के लिए प्राणवायु ऑक्सीजन को कभी भी हमने उतनी गंभीरता से प्रभु के आशीर्वाद के रूप में नहीं लिया जितना की वैश्विक कोविड महामारी के समय ऑक्सीजन की भयंकर कमी के दौरान लिया। मित्रों और परिजनों से मिलना, शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय जाना, रेस्टोरेंट में खाना खाना, ये सारी सहज सी लगने वाली बातें कोविड महामारी के दौरान सबसे मुश्किल कार्य बन गईं।
हमें अपने जीवन से और ज्यादा की उम्मीद करने की बजाय वास्तविक्ता में हमारे पास पहले से मौजूद परमात्मा के अनंत उपहारों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। शुद्ध और पवित्र मन से कृतज्ञता अर्पित करने वाले और इस कृतज्ञता को स्वीकार करने वाले दोनों को ही आपार ख़ुशी मिले।