करनाल, 15 मार्च। हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला संविधान की मूल भावना के अनुरूप है। कानून की समझ रखने वाले किसी भी व्यक्ति को अदालत से ऐसे ही फैसले की उम्मीद थी। तालिबान समर्थक और इस्लामिक कट्टरवादी इस फैसले को संविधान के खिलाफ बताकर इसका विरोध करेंगे, इसकी भी पहले से उम्मीद थी। हिजाब का समर्थन हो या ‘कश्मीर फाइल्स’ का विरोध, दोनों के पीछे एक ही मानसिकता और एक ही एजेंडा है। यह कहना है हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष और भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता डॉ. वीरेंद्र सिंह चौहान का। वह हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे।
डॉ. चौहान ने कहा कि हिजाब के पक्ष और विपक्ष में चली लंबी सुनवाई के दौरान यह मुद्दा उठा था कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है या नहीं। अदालत ने अपने फैसले में हिजाब को इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं माना है, जबकि कुरान में हिजाब का स्पष्ट उल्लेख न होने के बावजूद इस्लामी चरमपंथी अब भी अपने दावे पर अड़े हैं कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है। बड़ा सवाल यह है कि इस्लाम में क्या है और क्या नहीं, इससे देश को क्या मतलब? यह देश संविधान से चलेगा या शरिया से? संविधान में नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता जरूर दी गई है, लेकिन क्या यह अधिकार मनमानी करने की छूट देता है? संवैधानिक अधिकारों की सीमा रेखा क्या है?
डॉ. वीरेंद्र सिंह चौहान ने कहा कि वर्ष 1950 में भारत के जिस संविधान को लागू किया गया, वह धर्म और जाति के आधार पर बिना कोई भेदभाव किए सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और कर्तव्य की वकालत करता है। धार्मिक स्वतंत्रता भी उन्हीं अधिकारों में से एक है। संविधान से मिला कोई भी अधिकार असीमित नहीं है। हर अधिकार की एक सीमा रेखा तय है। इसके बावजूद संवैधानिक प्रावधानों की अलग-अलग व्याख्या की जा रही है। इसलिए यह विचार करना अब जरूरी हो गया है कि आखिर गड़बड़ कहां है।
डॉ. वीरेंद्र सिंह चौहान ने कहा कि भारतीय संविधान में अधिकारों की सीमा रेखा का स्पष्ट उल्लेख न होने से कई प्रावधान प्रथम दृष्टया परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। भ्रम की गंगोत्री यही है। उदाहरण के तौर पर अनुच्छेद 14 के अनुसार देश के सभी नागरिक समान हैं और जाति, धर्म या भाषा के आधार पर किसी भी नागरिक को उन अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 14 के उलट भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30 अलग-अलग समुदाय के लोगों को धर्म, जाति और भाषा के आधार पर अपने अलग शैक्षिक संस्थान स्थापित करने की अनुमति देता है। यदि नागरिक समान हैं, तो फिर उनके बीच अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का बंटवारा क्यों? देश में अलग अल्पसंख्यक आयोग का गठन क्यों किया गया जो देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी को भी अल्पसंख्यक मानता है? किसी भी धार्मिक समुदाय को अल्पसंख्यक मानने का आधार क्या है? यह संवैधानिक व्यवस्था संविधान के ही अनुच्छेद 14 की मूल भावना को नकारता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ और वक्फ संपत्ति कानून भी प्रथम दृष्टया अनुच्छेद 14 के विपरीत दिखता है। विडंबना है कि अलग-अलग धर्म के आधार पर अलग-अलग व्यवस्थाएं देने वाला देश का संविधान अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता की भी वकालत करता है।
डॉ. चौहान ने कहा कि देश को अस्थिर करने की कोशिश में जुटा आधा मोर्चा संविधान की इसी अस्पष्टता का फायदा उठाकर संवैधानिक प्रावधानों की मनमानी व्याख्या करता है। यह समुदाय चाहता है कि देश का संविधान उसे संरक्षण तो दे लेकिन उस पर लागू न हो। उन्होंने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ भी भ्रम फैलाकर इसी समुदाय ने जमकर उत्पात मचाया था जिसकी परिणति दिल्ली दंगों के रूप में हुई थी। वर्ष 1985 में जब देश के सुप्रीम कोर्ट ने इंदौर की एक तलाकशुदा बुजुर्ग मुस्लिम महिला के पक्ष में गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था तो इस समुदाय के दबाव में कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार को एक कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट देना पड़ा था। देश का यह सुविधाभोगी समुदाय देश के शासन तंत्र और बहुसंख्यक समाज को डरा कर देश में एक ऐसी व्यवस्था लागू करना चाहता है जो उनके मजहबी एजेंडे के अनुकूल हो।
भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि देश के इस विशेष समुदाय को सुविधाओं की इतनी बुरी आदत पड़ चुकी है कि वे अब खुद को संविधान से ऊपर समझने लगे हैं। मजहब को संविधान से ऊपर समझने वाला यह समुदाय अपनी धार्मिक पहचान का सार्वजनिक प्रदर्शन इसलिए करना चाहता है ताकि उनकी यह पहचान देश के भीतर एक अलग इस्लामी राष्ट्र का बोध कराता रहे। जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत यही है। हिजाब विवाद को इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है। चाहे सार्वजनिक संपत्तियों पर मस्जिद और मजार का मामला हो, सड़कों-चौराहों पर नमाज पढ़ने का मामला हो, नागरिकता संशोधन कानून का विरोध हो या स्कूल में हिजाब पहनकर जाने की जिद। सभी एक ही एजेंडे के अलग-अलग रूप हैं।